नाउमà¥à¤®à¥€à¤¦
November 5th, 2007
तेरे ग़मों की डली बनाकर ज़à¥à¤¬à¤¾à¤ पे रख ली है देखो मैंने
वो क़तरा क़तरा पिघल रही है, मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूà¤
इन आà¤à¤–ों की खामोश सिलवटों में, लबों की शरà¥à¤®à¤¾à¤ˆ करवटों में
रà¥à¤•à¥€ हà¥à¤¯à¥€ à¤à¤• आह दिल में, ज़हर मैं कितना जा पी रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूà¤
वो दिन जो मेरे करीब आकर, नज़र मिलाकर था तूने देखा
ये दिन जो यादें सिसक रहीं हैं, मैं फिर à¤à¥€ सपना वो सी रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूà¤
à¤à¥à¤²à¤¸ चà¥à¤•à¥€ इस शाख पे अब मायूस खà¥à¤µà¤¾à¤¬à¥‹à¤‚ की राख बस है
तड़पती साà¤à¤¸à¥‡ अनसà¥à¤¨à¥€ सी, कहानी चà¥à¤ª अनकही रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूà¤
--------------
कविता की पहली दो पंकà¥à¤¤à¤¿à¤¯à¤¾à¤ गà¥à¤²à¤œà¤¼à¤¾à¤° की हैं । बाकी मेरा छोटा सा पà¥à¤°à¤¯à¤¾à¤¸ ।