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नाउम्मीद

तेरे ग़मों की डली बनाकर ज़ुबाँ पे रख ली है देखो मैंने
वो क़तरा क़तरा पिघल रही है, मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

इन आँखों की खामोश सिलवटों में, लबों की शर्माई करवटों में
रुकी हुयी एक आह दिल में, ज़हर मैं कितना जा पी रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

वो दिन जो मेरे करीब आकर, नज़र मिलाकर था तूने देखा
ये दिन जो यादें सिसक रहीं हैं, मैं फिर भी सपना वो सी रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

झुलस चुकी इस शाख पे अब मायूस ख्वाबों की राख बस है
तड़पती साँसे अनसुनी सी, कहानी चुप अनकही रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

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कविता की पहली दो पंक्तियाँ गुलज़ार की हैं । बाकी मेरा छोटा सा प्रयास ।

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