Train Journey

बीते हुये महीने में जब देश वापस गया था तो दिल्ली से देहरादून का सफर मैंने ट्रेन से किया था । फ्लाईट से जा सकता था लेकिन मैंने सोचा कि इतने दिन बीत गये हैं, उत्तर प्रदेश की गरमी का अनुभव ट्रेन से नहीं किया । इसी कारणवश स्लीपर का एक टिकट बुक कराया और बड़ी आशाओं के साथ सफर शुरू किया । स्लीपर में जाने का भी एक विशेष उद्देश्य था । आप तो जानते ही होंगे कि जो आनंद चलती हुई ट्रेन की खिड़की के पास बैठकर, खेतों, पेड़ों और मैदानों से छन कर आने वाली हवा की खुशबू और शीतलता महसूस करने में है, वो ए.सी के बंद डिब्बे की क्रत्रिम ठण्ड में नहीं है । जो संतोष स्लीपर की खिड़की के जंग लगे लाल लोहे की छड़ों पर सिर रखकर, एकटक आँखों से बाहर का नज़ारा ताकने में है, वो ए.सी के काँच के पीछे से बाहर कि मिथ्या रंगो से रंगी दुनिया देखने में नहीं है । जो खुशी बारिश के मौसम में खिड़की से हाथ बाहर निकाल कर पानी की गीली स्वच्छता अनुभव करने में है, वो ए.सी के शीशे पे बाहर की ओर पानी की बूंदों द्वारा बनाये, मिटाये जा रहे चित्रों को अंदर से छूने के प्रयत्न में नहीं है ।

लेकिन मेरा मन स्लीपर की खिड़की के संकीर्ण सुख से नहीं भरता है कभी । मुझे तो ट्रेन के खुले दरवाजे की स्वतंत्रता चाहिये । मुझे तो अपने सामने अथाह, अनंत, असीमित मैदान, अपने पैरों के नीचे भागती हुई ट्रेन का तीव्र कंपन, अपने कानों में पहियों के नीचे चीखती पटरियों का क्रंदन और इस मंज़र में स्थिरता बनाये रखने के लिये अपने दोनो हाथों में दरवाजे के दोनो तरफ लगी हुई लोहे की छड़ों का स्वाद चाहिये । इसीलिये मैं अपना आधे से ज्यादा सफ़र हमेशा दरवाज़े पे खड़े रहकर करता हूं ! ऐसे में बाहर शून्य निगाहों से देखते हुये ये मन ना जाने कितनी दुनियां घूम आता है । कितने सारे सवाल पूछता है । कितने सवालों का उत्तर देता है । लेकिन सब चुपचाप, आहिस्ता से क्योंकि जानता है कि कानो में गूंज रहे शोर ने जिस शांती को जन्म दिया है, आँखों के आगे से गुज़र रहे नजारों ने जिस अंधेरे को जन्म दिया है, उसकी क्षणभंगुरता केवल एक आवाज़ के इंतज़ार में है ।

ऐसे ही खड़े खड़े ना जाने कितने घण्टे निकाल दिये होंगे मैने । होश तब आया जब गाड़ी धीमे होने लगी । अभी तो कोई स्टेशन नहीं दिख रहा है फिर गाड़ी कैसे रुकने लगी ? तभी दूर सामने एक छोटा सा स्टेशन दिखाई पड़ा । पूर्वनियोजित स्टाप नहीं था तो मैने सोचा कि शायद कुछ खराबी आ गयी हो । करीब ५०० मीटर खिसकने के बाद गाड़ी मानो ऐसे रुकी जैसे सोमवार की सुबह पांचवी क्लास का कोई बच्चा स्कूल जाने के लिये उठता है । वही आलस, वही हतोत्साह, वही दर्द और उसी तरह रोना । मैने भी सोचा की क्यों ना बाहर उतरके कुछ खाने का प्रबंध किया जाये । स्टेशन पर कोई नहीं था । बल्कि स्टेशन खुद केवल १०० गज का होगा । उस समय ३ बज रहे थे तो मेरे खयाल से बाकी सहयात्री दोपहर की नींद पूरी कर रहे थे । मैं वहां लगी एक बेंच पे जाकर बैठ गया और इधर उधर नज़रें घुमाने लग गया । उस दिन गर्मी इतनी नहीं थी लेकिन धूल बहुत उड़ रही थी । हवा के इस वेग ने खेतों पर फैली हरितिमा में एक बहता स्थायित्ब पैदा कर दिया था । दूर दूर तक फैले सन्नाटे का शोर असहनीय था और इस कर्णभेदी चुप्पी को यदा कदा चीरती कुछ पंछियों की आवाज़ें । जहां तक नज़र दौड़ा रहा था, बस पेड़ों और फसलों की पत्तियों पर हसता हुआ सूरज दिख रहा था। धूल, हवा के साथ उड़ उड़ कर बालों में घुस रही थी और अकेले खड़े उदासीन पीपल के व्रक्ष को परेशान कर रही थी । दूर पीने के पानी के नल से टपक रही रसधार हवा के वेग के कारण अपना रास्ता छोड़ टेढ़ी हो चली थी और प्यासी धरती की त्रष्णा बुझा रही थी । रेल की पटरी इस तरफ भी असीमित, अकेले शून्य की ओर भागती दिख रही थी और उस तरफ़ भी, और इन दो अनंन्तताओं को विभाजित कर रही थी मेरी ट्रेन और यह छोटा सा स्टेशन । सीटी बजने पर मैं वापस अपनी सीट पे चला गया । आधा सफ़र लगभग हो गया था और बाकी आधा मुझे सोते हुये बिताना था ।

Snakes on a Plane

Well I admit it. Moved by my baser instincts, I WATCHED IT. I watched Snakes on a Plane. Not as a part of someone's birthday party but at a cost of 9 freaking dollars. And how do I feel? I have my head held high and am beaming with the smile of self-satisfaction. YES I DID IT AND I WILL DO IT AGAIN.

No matter how foolish the movie seems by its title, one thing is for sure. You have no idea HOW FOOLISH it is unless you have seen it. The only thing more foolish than the movie's premise could be two snakes, dressed in whites and replete with a hat, driving the plane with 10 more snakes serving as air hostesses. But I am not complaining. The movie promised ridiculousness and it broke all barriers of logic. The movie promised cheap thrills and frills and it will take another Ed Wood and the rest of his next life to beat the cheapness of the thrills in this movie. Quiet simply, the movie is so crappy, it has transcended its critics. Their collective expertise is overshadowed by the monstrous ridiculity of the movie. In fact, after the initial jolt, I began enjoying it. For someone like me who is a fan of bad (so bad its good type) cinema, this movie is the pinnacle of human achievement. As someone rightly said, "this movie is quiet simply, the best movie ever made about snakes on a plane!"

Ruksat

आज जब जुदा होने की बात आई,

यह समां इतना रंगीन क्यों हो गया,
मेरा महबूब कुछ ज़्यादा हसीन क्यों हो गया है ।

पानी पे चाँद इतना खुश क्यों लग रहा है,
बीता हुआ वक़्त आज इतना क्यों सुलग रहा है ।

हवाओं की ठण्डी थपकी में आज यह नरमी कैसी ?
रात की कोमल रोशनी में भला यह गरमी कैसी?

और तुम्हारे बारे में क्या कहूं ?

"रंगो, छंदों में समायेगी, किस तरह से इतनी सुंदरता ?"

आज इन आँखों में चांद की शरारत चमक रही है
जैसे कि कितने सारे राज़ इनकी गहराईयों से बाहर आने को बेताब हों
कितने सारे सवाल, कितने सारे किस्से इसकी गर्त में दफ़्न
दिल को कितना ज़्यादा भेद रहीं हैं यह आज
जैसे ना चाहते हुये भी बीते हुये खुशगवांर वक्त की दुहाई दे रहीं हों

और इन होठों पे एक अनसुनी, अनकही दास्ताँ है
मुस्कुराहट इनकी कैद से रहरहकर बाहर झाँक रही है,
जैसे एक डगमगाते हुये, भरे हुये पैमाने से मै की दो बूंदे गिरने को बेताब हों

इन अधखुले होठों पर इतना निमंत्रण क्यों है ?
इस दिल में बेवजह ही इतना कंपन क्यों है ?
इन आँखों के तीर मेरे दिल के पार हो रहे
मेरे सारे हौसले तेरे सामने बेकार हो रहे !

लेकिन ना जानते हुये भी कितनी स्वार्थी हो गयी हो तुम
तुम्हारे इस रूप ने इस कातिलाना मंज़र के साथ मिलके मेरे मन में हज़ार सवाल पैदा कर दिये हैं
इस जुदाई की सार्थकता के बारे में सोचने लग गया हूं।
तुम्हारे बगैर इस सफर की असहनीयता के बारे में सोचने लगा हूं
मैं कितना कमज़ोर, कितना बेचारा और तुम कितनी निष्ठुर, कितनी दूर ।

"इस पार प्रिये, मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा

द्रग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है
फिर भी उस पार खड़ा कोई, हम सबको खींच बुलाता है
मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगी साथी
दुनिया रोती धोती रहती, जिसको जाना है जाता है
मेरा तो होता मन डगमग, तट पर ही के हलकोरों से
जब मैं एकाकी पहुंचूंगा, मझधार न जाने क्या होगा
इस पार प्रिये, मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा"

Hindi or English

Some people recently asked me, "Why have you started posting so many of your posts in Hindi" ? And I kept quiet. Not because of a lack of reasons but because I had too many of them.

The first and foremost reason that came to my mind was an unsaid, subdued sense of revolt on my part against the shimmering facade of a continuously rotting Indian society. Now I could go on and on till eternity without breaking a sweat in reviling and blasting those moms who would rather say "betcha (polluted form of बेटा) corn खाने से stomach में ache हो जायेगा" in the hope that even if her "yet being anglicised" toddler catches a stomach ache on account of the comprehensive impenetrability of her recent gibberish, will atleast move in the right direction away from the poor and pathetic India which is hopelessly polluted by her mothertongue. I could give a million examples without saying an Ah! of those youngsters who try to mercilessly maul language and convert a "my" to "ma" and then to "moi" and finally to "mie" in the hope of forging their unique identity and sounding "khool (polluted form of cool) and who never for a second realize that all achievements both superficial and otherwise, rest on the strength of character and self belief and not on the crutches of a handicapped and bleeding language. I could laugh my ass off at those celebrities who do not anymore possess the talent of entirely speaking in their own language and have to resort to the familiarity of English every now and then. I could laugh surely but I won't as my heart cries out for the apathy which our regional languages have to face in our mass hypnotized nation.

But this is not the reason I have started posting so many of my posts in Hindi. The sole reason behind this is the dawn of my understanding of the subtle possibilities, the creative horizons and succint, inherent power of the Hindi language. The reading of Harivansh Rai Bachchan's नीड़ का निर्माण फिर, Mahadevi Verma's अतीत के चलचित्र, मधुशाला etc. has awakenden me to the immense facets of the language. I can safely say that whereas on one hand English seems to be better at expressing formality and logic, it can hardly match the silken fluidity of Hindi and Urdu at expressing emotions. It seems to me that this effect is do to the overexposure of English and some of its inherent weaknesses. Whereas we all have grown up studying English literature and are cognizant of its twists and turns, a simple verse in Hindi (Urdu) is enough to knock us off our sleep, sit up and take notice. Ironically, this is because of the unfamiliarity with the language which the Indian culture has introduced in us. Second reason is the simple fact that Hindi is better suited to rhymes and verses than English. One of my previous posts (Plight of an English poet) dwells on this. As an example, read these lines which describe the utter hopelssness and cynicism of a poet:

क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी?
एक भी उच्छवास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन में बह सकी कब
इस नयन की अश्रुधारा?
सत्य को मूंदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी ?
क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी?

I would be more than happy to explain them if someone has any problems, but my point is that it is impossible to express something so subtle, so beautifully in English. Its just impossible. Atleast I haven't seen anything comparable till now.

Finally, I would end by urging that please give your languages the attention they deserve. Not because you owe anything to them or because it is your unsaid duty but because you would deprive yourselves of the immense treasures, those languages might be holding within. I will end by saying that I have nothing against English but I simply hate it when it becomes a status symbol in the hands of some non-discerning fools and ends up trampling and stomping our already tottering national language.

15 August

आज पूरे ६ साल बाद अपने पुराने स्कूल के स्वतंत्रता दिवस समारोह पे गया था। इतने दिनो बाद पहली बार यह अवसर आया था जब १५ अगस्त के दिन मैं लखनऊ में ही था। इसलिये मैने सोचा कि क्यों ना कुछ पुरानी यादें ताज़ा कर ली जायें। बड़ी मुशकिल से सुबह सात बजे उठकर, तय्यार होकर साढ़े सात बजे तक स्कूल पहुच गया।

दरवाज़े पर गार्ड ने एक अपरिचित चेहरा देखने पर कुछ सवाल पूछे और सन्तुष्ट होने पर गाड़ी अन्दर ले जाने दी। मुझे ध्यान है कि मेरे समय में गार्ड केवल नाम-मात्र होता था। उसको एक अमरूद दे दो तो खुद ओसामा-बिन-लादेन को अन्दर जाने की अनुमती दे देता। क्योंकि ध्वजारोहण में अभी भी आधा घण्टा बचा था तो मैने स्कूल का एक चक्कर लगाने का निर्णय लिया। जिस स्टाफ रूम में पहले जाने में पसीना आता था और अन्दर पहुचते ही अनायास ही हाथ पीछे और चाल सीधी हो जाती थी, वो थोड़ा निर्जीव सा लगा। ऐसा नहीं है कि अन्दर घुसते ही कुछ नज़रे मुझ पर नहीं गड़ गयी थीं लेकिन आज वो नज़रे मुझे टटोल नहीं रही थीं। आज उनमे वो सवाल नहीं था कि 'बेटा आज क्या घपला किया'। अगर उनमे कुछ था तो बस एक रुचिहीन कौतूहल। प्रिन्सिपल का कमरा वैसे का वैसा ही था और स्पोर्टस फील्ड में भी अधिक बदलाव नहीं था अलबत्ता उसके चारो ओर की दीवारें ऊँची हो गयी थी (हमारे क्लास के बच्चे उसको फाँद फाँद के मूवी देखने खूब जाते थे)। फिज़िक्स लैब वगैरह में L.C.D प्रोजेक्टर लग गये हैं लेकिन वही ३० साल पुरानी काँच की शीशियां जिनके लेबल आज से ६ साल पहले ही धुधले पड़ गये थे, वही पुराने चार्ट जिनको शायद ही कोई बच्चा पढ़ता हो कभी, वही आरामतलबी टीचर्स और खड़ूस लैब-असिस्टैंट।

आठ बजने में १० मिनट पर मौरनिंग असेम्बली की तय्यारियां शुरू हुईं तो मुझे वो दिन याद आ गये जब एक साल बीतने का अनुभव सिर्फ प्राईमरी के बच्चों से हर साल बढ़ती दूरी के रूप में होता था। बारहवी क्लास और हममे और उन नादानों में १० लाईनों का फासला! प्रिंसिपल के हाथों ध्वजारोहण हुआ और साथ में राष्ट्र गान। मैं ये कभी नहीं समझ पाया कि मेरे लिये राष्ट्र गान का महत्व पहले की बनिस्पत अब इतना ज़्यादा क्यों हो गया है। पहले जिसे मैं सिर्फ एक गीत और ज़िम्मेदारी समझता था, अब उसके मायने कहीं दिल से जुड़ गये हैं। और आज जब मौका स्वतंत्रता का था और सामने तिरंगा लहरा रहा था, मैं अपने हाथों पर खड़े हो रहे रोओं की सरसराहट साफ महसूस कर रहा था। हवाओं मे गूंजते 'ऐ मेरे वतन के लोगों' के स्वर मेरे कानों में प्रतिध्वनित हो हो कर दिल की धड़कनों को उकसा रहे थे। मुझे नहीं पता की और लोग भी ऐसा महसूस करते हैं कि नहीं लेकिन मैं साफ समझ रहा था कि उस दिन क्यों पण्डित नेहरू अपने आँसू नही रोक पाये थे।

कार्यक्रम के अन्त में प्रिन्सिपल साहब की एक उबाऊ स्पीच (कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलतीं!) और फिर मिष्ठान वितरण (२ लड्डू!)। वापस आते समय सोच रहा था कि उन दो लड्डूओं वाले समय के लिये आज मैं क्या नहीं दे सकता।

A cricketing slugfest

आँखों मे जलती धूप और मुह पे लू के थपेड़े,
पसीने से भीगी शर्ट और धूल धूसरित उज्जड़ बाल ।
रहरहकर नंगे पैरों में चुभते वो कंकड़ हजार,
अगली गेंद से नज़र हटने का लेकिन ना कोई सवाल ।

मुनियों की सी एकाग्रता और गेंदबाज पे पैनी नज़र,
गदा समान बल्ला मुठ्ठी में कसकर पकड़ खड़े तय्यार ।
फील्डर और सीमा का, अवचेतन मन में चित्र खिंचा,
तन गई भुकुटी लो शुरू हुआ अब अगली बाल का इंतजार ।

अपना पूरा ज़ोर लगाकर, गेंदबाज ने फेकी गेंद,
सन्नाटे को चीरती बढ़ती, ध्वनि-सीमा को कर गई पार ।
एक कदम कर पीछे लेग पे, बल्लेबाज ने बल्ला भांजा,
दम टूटा फील्डर का पीछे, आगे देखो हो गये चार ।

उल्लासोन्मादित हर्षित दर्शकगण, चहक उठे और उछल पड़े,
तालियों और नारों कि गूंजों से, होता जीत का अभिवादन ।
बल्लेबाज कंधों पे चढ़कर, प्रशंसा का करता रसपान,
हार कठिन है सहनी लेकिन, उससे भी दुष्कर यह क्रंदन !

-Self

I remember

न जाने क्यों, अचानक आज वो दिन याद आ गये जो अभी तक बीते हुये सावन में मिट्टी की सोंधी महक की तरह दिल के किसी कोने में, धूल कि कई परतों के नीचे दबे हुये थे।

मुझे याद हैं वो लम्हे जब वो आँखें धड़कने तेज़ कर देती थीं।
मुझे याद है कैसे उसके सामने आवाज़ मेरा साथ छोड़ देती थी।
मुझे याद हैं वो पल जब वो एक नज़र एक नयी उमंग जगा देती थी, और कैसे मैं उन पलों को बार बार ज़हन में उलटता पलटता रहता था।
वो कुछ बार जब दो शब्द निकले हों मेरे मुह से।
वो कुछ बार जब दो शब्द निकले हों उसके मुह से।
वो शर्म से उसका उंगलियाँ चटकाना और रह रहकर बिना वजह किसी और ओर देखना।
वो बेबाकी से नज़रों का मिलाना।
वो मीठा सा तसव्वुर और बेसब्र इंतज़ार।
वो किताबों के पन्नो में उस सूरत की ख्वाहिश।
वो आँखों के आगे धुधलके की परत िजसपे वो चेहरा खिंचता था।

वो दिन जब आखिरी बार उसे देखा।
वो शब्द जो ज़ुबँा पे आ न सके।
वो अरमान जो इन आँखों के साथ ही पथरा गये।
कितना कुछ कहना था, कितना कुछ सुनना था,
शायद दोनो ओर से पहल का इंतज़ार रह गया।

और आज इन हाथो में फिसलती जा रही धूल बची है।
वो धुधलाता हुआ चेहरा जिसको अब पहचानना मुश्किल हो चला है।
गये सावन की वो महक जो अब एक याद बनकर रह गयी है।
डूबते हुये दिन की वो आखिरी किरणें।

-Self

Brave New World

Recently, a friend of mine asked me : "So what differences do you find between Indian and American culture ?"
I bluntly replied : "What culture ?"

Huxley's 'Brave New World' depicts a fictional dystopian society where everyone is happy. This happiness is not a result of personal milestones or successes but stems from the complete removal of every social aspect which might some day become a reason of unrest in the society. In this society, individuals are 'created' artificially based upon the demands of 'economic consumption' and 'labour'. Every individual, from birth, is conditioned to do a particular type of work and has the sole purpose of serving as yet another consuming unit. 'Distractions' like love, art, solitude, literature etc. have been conveniently removed from the system so that every individual may serve its purpose of consumption without any undue interruptions. 'Everyone is meant to be for everyone else' so that the pain associated with love and refusals is uprooted from the society. In short, everyone is happy.

While reading the book, I could not help but compare the nightmarish scenario depicted in the book with the present American society in general and the modern Indian society in particular. Having taken the blue pill of mindless capitalism, the dwellers of these societies have now been reduced to mere consuming units. Their lives are dictated by those idiotic TV commercials. Their needs, magnified by the giant corporations which try to sell them everything from nutritious and great tasting 'dog food' to credit cards to cars and what not. The notion that all these material amenities are necessary for emotional fulfillment and happiness is darkly etched in the collective psyche of these societies. Love in these societies, is conveniently compartmentalized into manageable, separate 'relationship' slots so that every 'break up' has the silver lining of being an indication of a new 'relationship'. Sitcoms like 'Sex and the city' expect us to identify with the emotions of the protagonist as she tries to overcome her 50th break-up. What crap!. In such societies, art, literature and happiness which results from solitude and silent contemplation die a cruel death as no one has time for such things. And this behaviour is entirely in accordance with the capitalist views. Its sad that in a place where events like valentine's day, mother's day, father's day and a zillion other days are marked by 10 advanced days of special advertisements of sales and discounts, a 4th of July passes off without even a single mention on the T.V. Sure, it is accompanied by fireworks but they are the prerogative of the Government not the people. Sure, it is accompanied by a host of parties, but I feel that people out here just need an excuse for getting wasted. This is not the sad part. The sad part is that the modern Indian society is frighteningly similar to its American counterpart.

A borrowed experience

It may be attributed to my own lack of creativity lately but this piece is encouraged by one of my friend's experiences.

The whole point in question is to pause for a second and analyze the hell out of the latest embarassing situation which your ingenuity has pushed you into. The situation does not need to be described in detail to you as it should be as familiar as your right hand and as unpleasently yellow as the stinking piece of vegetable which finds itself drenched in the light of the day after 3 months of neglected solitude in the lower most part of your refrigerator basket.

The situation rears its ugly head when you innocently remark over your hatred towards fatty foods in front of an especially portly person, when you ask a disabled subject, why the hell is he hobbling like that or when you start sermonizing over the utter futility of a particular academic field to your uncle whose dear toddler happens to have just started his career in the very same field.

The point of this post is not to summarize the various situations pertinent to the present discussion, for there are infinite, but to analyze the exact emotions which rush through the already cluttered mind during such circumstances.

The first thought which comes to mind in these cases is an unconscious realization that einstien's special relativity is flawed as without any apparent relative velocity between me and the subject of my comments (which by the way has become the most appealing aspect of all of physics at this moment) my clock has somehow become unbearably slow. The expressions on his face, which till now were as innocuous as the next person's, now stand out distinct, deprecating and deploring. He is trying hard to camouflage his embarassment with that forced and laborious streching of the left corner of his lip but reality is frustatingly being bombarded upon me by those wretched eyes which have blinked twice the normal number of times in the last 10 seconds. As I realize that probably history had just been witness to the longest period of speechlesness, my faculties go into an overdrive with the aim of salvaging whatever is possible in this hopelessly lost situation. What should I say next?

1. Well, I am sorry but somehow, inexplicably, inscrutably, I happened to overlook your enormous East-West expanse (a reply, sure to make the situation worse).
2. (matter of factly): by the way, did you happen to watch the finals of the french open? (how will I ever face myself in the mirror)
3. Shit!!! (most honest but honesty doesn't always make a digestible meal to everyone)

As I am ruminating over these possibilities, I again realize that 46 more seconds have been spent and now the probability of saving my face is lesser than my being hit by a lightning right at this very moment (a much pleasanter state) and I, in a rare display of callousness and daredevilry turn my face away as if nothing ever happened.

Sporty Nerves

Its 5:31 in the morning and I am sitting in front of the TV having just woken up after an extremely intermittent sleep waiting for the french open final between federer and nadal which is slated to begin in another 30 minutes.

I don't remember the last time when I woke up at 5:00 in the morning. Neither do I remember the last time I experienced such jittery nerves regarding a sport match. What I do remember is the fact that it used to be sometime about 8 years ago when a cricket match between India and Pakistan used to trespass my dreams in the night often culminating in my getting up just on the brink of a nervous breakdown. Those were the days when taking the next breath often took a lesser priority than the next ball and when the departure of Tendulkar often meant a fresh hole in the emotional fabric of my life. It is sad that I have not felt like this since a long time now. That is till now.

For the last few years, I have gotten so ennamoured by the genius of Federer that his victories have become my own and his losses, sad heart wrenching experiences. Since it is foolish to dissect emotion with something as crass as logic, I won't go into the reasons of my feeling this. I would only go as far as saying that I love this. It makes my life complete. To feel that gut wrenching nervousness, that rush of adrenaline over a brilliant passing shot, an almost unannounced shriek accompanied with that raised fist at another victory, is as innocent and raw as emotions get.

If only I could feel like this for another India-Pakistan slugfest.

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