बीते हà¥à¤¯à¥‡ महीने में जब देश वापस गया था तो दिलà¥à¤²à¥€ से देहरादून का सफर मैंने टà¥à¤°à¥‡à¤¨ से किया था । फà¥à¤²à¤¾à¤ˆà¤Ÿ से जा सकता था लेकिन मैंने सोचा कि इतने दिन बीत गये हैं, उतà¥à¤¤à¤° पà¥à¤°à¤¦à¥‡à¤¶ की गरमी का अनà¥à¤à¤µ टà¥à¤°à¥‡à¤¨ से नहीं किया । इसी कारणवश सà¥à¤²à¥€à¤ªà¤° का à¤à¤• टिकट बà¥à¤• कराया और बड़ी आशाओं के साथ सफर शà¥à¤°à¥‚ किया । सà¥à¤²à¥€à¤ªà¤° में जाने का à¤à¥€ à¤à¤• विशेष उदà¥à¤¦à¥‡à¤¶à¥à¤¯ था । आप तो जानते ही होंगे कि जो आनंद चलती हà¥à¤ˆ टà¥à¤°à¥‡à¤¨ की खिड़की के पास बैठकर, खेतों, पेड़ों और मैदानों से छन कर आने वाली हवा की खà¥à¤¶à¤¬à¥‚ और शीतलता महसूस करने में है, वो à¤.सी के बंद डिबà¥à¤¬à¥‡ की कà¥à¤°à¤¤à¥à¤°à¤¿à¤® ठणà¥à¤¡ में नहीं है । जो संतोष सà¥à¤²à¥€à¤ªà¤° की खिड़की के जंग लगे लाल लोहे की छड़ों पर सिर रखकर, à¤à¤•à¤Ÿà¤• आà¤à¤–ों से बाहर का नज़ारा ताकने में है, वो à¤.सी के काà¤à¤š के पीछे से बाहर कि मिथà¥à¤¯à¤¾ रंगो से रंगी दà¥à¤¨à¤¿à¤¯à¤¾ देखने में नहीं है । जो खà¥à¤¶à¥€ बारिश के मौसम में खिड़की से हाथ बाहर निकाल कर पानी की गीली सà¥à¤µà¤šà¥à¤›à¤¤à¤¾ अनà¥à¤à¤µ करने में है, वो à¤.सी के शीशे पे बाहर की ओर पानी की बूंदों दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ बनाये, मिटाये जा रहे चितà¥à¤°à¥‹à¤‚ को अंदर से छूने के पà¥à¤°à¤¯à¤¤à¥à¤¨ में नहीं है ।
लेकिन मेरा मन सà¥à¤²à¥€à¤ªà¤° की खिड़की के संकीरà¥à¤£ सà¥à¤– से नहीं à¤à¤°à¤¤à¤¾ है कà¤à¥€ । मà¥à¤à¥‡ तो टà¥à¤°à¥‡à¤¨ के खà¥à¤²à¥‡ दरवाजे की सà¥à¤µà¤¤à¤‚तà¥à¤°à¤¤à¤¾ चाहिये । मà¥à¤à¥‡ तो अपने सामने अथाह, अनंत, असीमित मैदान, अपने पैरों के नीचे à¤à¤¾à¤—ती हà¥à¤ˆ टà¥à¤°à¥‡à¤¨ का तीवà¥à¤° कंपन, अपने कानों में पहियों के नीचे चीखती पटरियों का कà¥à¤°à¤‚दन और इस मंज़र में सà¥à¤¥à¤¿à¤°à¤¤à¤¾ बनाये रखने के लिये अपने दोनो हाथों में दरवाजे के दोनो तरफ लगी हà¥à¤ˆ लोहे की छड़ों का सà¥à¤µà¤¾à¤¦ चाहिये । इसीलिये मैं अपना आधे से जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ सफ़र हमेशा दरवाज़े पे खड़े रहकर करता हूं ! à¤à¤¸à¥‡ में बाहर शूनà¥à¤¯ निगाहों से देखते हà¥à¤¯à¥‡ ये मन ना जाने कितनी दà¥à¤¨à¤¿à¤¯à¤¾à¤‚ घूम आता है । कितने सारे सवाल पूछता है । कितने सवालों का उतà¥à¤¤à¤° देता है । लेकिन सब चà¥à¤ªà¤šà¤¾à¤ª, आहिसà¥à¤¤à¤¾ से कà¥à¤¯à¥‹à¤‚कि जानता है कि कानो में गूंज रहे शोर ने जिस शांती को जनà¥à¤® दिया है, आà¤à¤–ों के आगे से गà¥à¤œà¤¼à¤° रहे नजारों ने जिस अंधेरे को जनà¥à¤® दिया है, उसकी कà¥à¤·à¤£à¤à¤‚गà¥à¤°à¤¤à¤¾ केवल à¤à¤• आवाज़ के इंतज़ार में है ।
à¤à¤¸à¥‡ ही खड़े खड़े ना जाने कितने घणà¥à¤Ÿà¥‡ निकाल दिये होंगे मैने । होश तब आया जब गाड़ी धीमे होने लगी । अà¤à¥€ तो कोई सà¥à¤Ÿà¥‡à¤¶à¤¨ नहीं दिख रहा है फिर गाड़ी कैसे रà¥à¤•à¤¨à¥‡ लगी ? तà¤à¥€ दूर सामने à¤à¤• छोटा सा सà¥à¤Ÿà¥‡à¤¶à¤¨ दिखाई पड़ा । पूरà¥à¤µà¤¨à¤¿à¤¯à¥‹à¤œà¤¿à¤¤ सà¥à¤Ÿà¤¾à¤ª नहीं था तो मैने सोचा कि शायद कà¥à¤› खराबी आ गयी हो । करीब ५०० मीटर खिसकने के बाद गाड़ी मानो à¤à¤¸à¥‡ रà¥à¤•à¥€ जैसे सोमवार की सà¥à¤¬à¤¹ पांचवी कà¥à¤²à¤¾à¤¸ का कोई बचà¥à¤šà¤¾ सà¥à¤•à¥‚ल जाने के लिये उठता है । वही आलस, वही हतोतà¥à¤¸à¤¾à¤¹, वही दरà¥à¤¦ और उसी तरह रोना । मैने à¤à¥€ सोचा की कà¥à¤¯à¥‹à¤‚ ना बाहर उतरके कà¥à¤› खाने का पà¥à¤°à¤¬à¤‚ध किया जाये । सà¥à¤Ÿà¥‡à¤¶à¤¨ पर कोई नहीं था । बलà¥à¤•à¤¿ सà¥à¤Ÿà¥‡à¤¶à¤¨ खà¥à¤¦ केवल १०० गज का होगा । उस समय ३ बज रहे थे तो मेरे खयाल से बाकी सहयातà¥à¤°à¥€ दोपहर की नींद पूरी कर रहे थे । मैं वहां लगी à¤à¤• बेंच पे जाकर बैठगया और इधर उधर नज़रें घà¥à¤®à¤¾à¤¨à¥‡ लग गया । उस दिन गरà¥à¤®à¥€ इतनी नहीं थी लेकिन धूल बहà¥à¤¤ उड़ रही थी । हवा के इस वेग ने खेतों पर फैली हरितिमा में à¤à¤• बहता सà¥à¤¥à¤¾à¤¯à¤¿à¤¤à¥à¤¬ पैदा कर दिया था । दूर दूर तक फैले सनà¥à¤¨à¤¾à¤Ÿà¥‡ का शोर असहनीय था और इस करà¥à¤£à¤à¥‡à¤¦à¥€ चà¥à¤ªà¥à¤ªà¥€ को यदा कदा चीरती कà¥à¤› पंछियों की आवाज़ें । जहां तक नज़र दौड़ा रहा था, बस पेड़ों और फसलों की पतà¥à¤¤à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ पर हसता हà¥à¤† सूरज दिख रहा था। धूल, हवा के साथ उड़ उड़ कर बालों में घà¥à¤¸ रही थी और अकेले खड़े उदासीन पीपल के वà¥à¤°à¤•à¥à¤· को परेशान कर रही थी । दूर पीने के पानी के नल से टपक रही रसधार हवा के वेग के कारण अपना रासà¥à¤¤à¤¾ छोड़ टेढ़ी हो चली थी और पà¥à¤¯à¤¾à¤¸à¥€ धरती की तà¥à¤°à¤·à¥à¤£à¤¾ बà¥à¤à¤¾ रही थी । रेल की पटरी इस तरफ à¤à¥€ असीमित, अकेले शूनà¥à¤¯ की ओर à¤à¤¾à¤—ती दिख रही थी और उस तरफ़ à¤à¥€, और इन दो अनंनà¥à¤¤à¤¤à¤¾à¤“ं को विà¤à¤¾à¤œà¤¿à¤¤ कर रही थी मेरी टà¥à¤°à¥‡à¤¨ और यह छोटा सा सà¥à¤Ÿà¥‡à¤¶à¤¨ । सीटी बजने पर मैं वापस अपनी सीट पे चला गया । आधा सफ़र लगà¤à¤— हो गया था और बाकी आधा मà¥à¤à¥‡ सोते हà¥à¤¯à¥‡ बिताना था ।