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तीर पर कैसे रुकूँ मैं

तीर पर कैसे रुकू मैं आज लहरों में निमंत्रण!

रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलतें हैं सितारे
वक्ष पर युग बाहु बाँधे, मैं खड़ा सागर किनारे,
वेग से बहता प्रभंजन केश पट मेरा उड़ाता,
शून्य में भरता उदधि-उर की रहस्यमयी पुकारें;
इन पुकरों की प्रतिध्वनि हो रही मेरे ह्रदय में,
है प्रतिच्छायित जहाँ पर सिंधू का हिल्लोल कम्पन
तीर पर कैसे रुकू मैं आज लहरों में निमंत्रण!

जड़ जगत में वास कर भी जड़ नहीं व्यवहार कवि का,
भावनाओं से विनर्मित और ही संसार कवि का,
बूँद के उच्छ्वास को भी अनसुनी करता नहीं वह,
किस तरह होता उपेक्षा पात्र पारावार कवि का;
विश्व पीड़ा से, सुपरिचित हो तरल बनने, पिघलने,
त्यागकर आया यहाँ कवि स्वप्न लोकों के प्रलोभन;
तीर पर कैसे रुकू मैं आज लहरों में निमंत्रण!

जिस तरह मरु के ह्रदय में है कहीं लहरा रहा सर,
जिस तरह पावस पवन में है पपीहे का छिपा स्वर,
जिस तरह से अश्रु-आहों से भरी कवि की निशा में
नींद की परियाँ बनाती कल्पना का लोक सुखकर,
सिन्धु के इस तीव्र हाहाकार ने, विश्वास मेरा,
है छुपा रखा कहीं पर एक रस-परिपूर्ण गायन;
तीर पर कैसे रुकू मैं आज लहरों में निमंत्रण!

आ रहीं प्राची क्षितिज से खींचने वाली सदाएँ,
मानवों के भाग्य-निर्णायक सितारों! दो दुआएँ,
नाव, नाविक, फेर ले जा, है नहीं कुछ काम इसका,
आज लहरों से उलझने को फड़कती है भुजाएँ;
प्राप्त हो उस भी इस पार सा चाहे अंधेरा,
प्रप्त हो युग की उषा चाहे लुटाती नव किरण धन;
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमन्त्रण!

-हरिवंशराय बच्चन

Anand

In one of the most poignant scenes in Bollywood history, a hyperventilating Rajesh Khanna says to a massively worried Amitabh Bachchan, 'जो खत्म हो रहा है वो शरीर है।' (That which is ending is the body) and follows it up with one of the most beautiful poems I've ever come across:

मौत तू एक कविता है,
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

which, when translated reads like:

Death, you are a poem,
and you shall meet me; in your poetic promise.

when pain begins to subside in my sinking pulse,
and the pale moon reaches the horizon.
while the day is still in water, and night lurks on the bank,
neither dark nor alight, when it's neither a day nor a night

when the body ends and the soul takes breath,
you shall meet me; in your poetic promise.

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Not the brightest of thoughts with which to start the day but it does serve to elucidate the power of creative effort. Art, in its best attempt, trying to veil the hideous reality in a beautiful raiment, thereby engendering an experience that is as rooted in ethereal beauty as in dead certainty. Bare truth is not only depressing, it's also predictably boring. A creative vision, in the above example, seeking to redress reality's morbid obsession with its own mediocrity and inevitability.

नाउम्मीद

तेरे ग़मों की डली बनाकर ज़ुबाँ पे रख ली है देखो मैंने
वो क़तरा क़तरा पिघल रही है, मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

इन आँखों की खामोश सिलवटों में, लबों की शर्माई करवटों में
रुकी हुयी एक आह दिल में, ज़हर मैं कितना जा पी रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

वो दिन जो मेरे करीब आकर, नज़र मिलाकर था तूने देखा
ये दिन जो यादें सिसक रहीं हैं, मैं फिर भी सपना वो सी रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

झुलस चुकी इस शाख पे अब मायूस ख्वाबों की राख बस है
तड़पती साँसे अनसुनी सी, कहानी चुप अनकही रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

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कविता की पहली दो पंक्तियाँ गुलज़ार की हैं । बाकी मेरा छोटा सा प्रयास ।

uff...

सहमी सी इक नज़्म के सहमे हुये अल्फ़ाज़
कतरों में सिमटती हुई, मन की इक आवाज़
आँखों में सर्द रोशनी की आख़री किरन
दम तोड़ते हुये दिल की आख़री धड़कन
बस एक इनायत की नज़र कर तो दो सरकार
जीना तो था बेकार यहाँ, मौत तो हो साकार !

ज़ालिम तेरे ज़ुल्मों कि ये अब इंतहा तो है
इन रंजिशी नसों में दर्द ही बहा तो है
बस एक मुलाकात ही को, मैं होता बेकरार
इस आख़री एहसान से भी है तुझे इनकार ?
माना भी चलो तुमको ना था मुझसे कभी प्यार
पर झूठ ही कह दो चलो मरने तो दो इक बार

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