सहमी सी इक नज़्म के सहमे हुये अल्फ़ाज़
कतरों में सिमटती हुई, मन की इक आवाज़
आँखों में सर्द रोशनी की आख़री किरन
दम तोड़ते हुये दिल की आख़री धड़कन
बस एक इनायत की नज़र कर तो दो सरकार
जीना तो था बेकार यहाँ, मौत तो हो साकार !

ज़ालिम तेरे ज़ुल्मों कि ये अब इंतहा तो है
इन रंजिशी नसों में दर्द ही बहा तो है
बस एक मुलाकात ही को, मैं होता बेकरार
इस आख़री एहसान से भी है तुझे इनकार ?
माना भी चलो तुमको ना था मुझसे कभी प्यार
पर झूठ ही कह दो चलो मरने तो दो इक बार